तीर्थ शब्द का शास्त्रीय व्युत्पत्ति है – तीर्यते अनेनेति अथवा
तरति पापादिकं यस्मादिति – जिससे पापादि से मुक्ति मिलती है। अथवा जिससे पार किया जाये। इनके अनुसार तीर्थ का अर्थ है पार करने वाला । पापादि से छुड़ानेवाले नदी, सरोवर, मन्दिर, पवि- त्र-स्थल, दिव्यभूमि आदि तीर्थ कहे जाते हैं। इनमे स्नान-दान, दर्शन, स्पर्शन, अवलोकन – आवास आदि से पवित्रता प्राप्त होती है, ये भगवत्प्राप्ति में सहायक होते हैं तथा इनके सम्पर्क से मनुष्य के पाप अज्ञातरूप से नष्ट हो जाते हैं। तीर्थों की पुण्यता क्यों है ? इसके बारे में कहा गया है कि –
प्रभावातत्भुताद् भूमेः सलिलस्य च तेजसा ।
परिग्रहान्मुनीनां च तीर्थानां पुण्यता स्मृता ।।
भूमि के अद्भुत प्रभाव से, जल के तेज से तथा मुनिगणों के परिग्रह से तीर्थों की पुण्यता होती है।
तीर्थ अनेक प्रकार के कहे गये हैं उनमें भूमि से सम्बद्ध पुण्यस्थान भौमतीर्थ और भगवान के दिव्य-विग्रहों का वास जहाँ हो वे नित्यतीर्थ कहलाते हैं।
उज्जयिनी इस दृष्टि से भौमतीर्थ भी है और नित्यतीर्थ भी। क्योंकि इसकी भूमि में सृष्टि के आरम्भकाल से ही दिव्य पावन- कारिणी शक्ती रही है। इस भूमि की पुण्यवत्ता के कारण ही यहाँ दिव्य देव-विग्रहों का, विश्णुदेहोद्भूता शिप्रा आदि अन्य नदियों का और तपस्वी-सन्तों का निवास रहा है। यही क्यों ? स्कन्दपुराण के अनुसार तो यहाँ पद-पद पर तीर्थ विराजमान हैं। अवन्ति-खण्ड में यह भी कहा गया है कि महाकाल वन स्वयं भगवान शिव ने वास किया था, अतः उनके प्रभाव से यहाँ की समस्त भूमि नित्यतीर्थ बन गई । वायुपुराण, लिड्गपुराण, वराहपुराण आदि भी उनसे साक्षात् सम्बन्ध है।